Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 171
________________ अहितकर व दुःखदायी होते हैं । इस बात का तात्पर्य भगवान् महावीर के समवसरण में चार जनों को आई हुई छींक के वृत्तांत से समझ लेना ॥४४०॥ छज्जीवकायविरओ, कायकिलेसेहिं सुट्दु गुरुएहिं । न हु तस्स इमो लोगो, हवइ तस्सेगो परे लोगो ॥४४१॥ ___ शब्दार्थ : षड्जीवनिकाय की विराधना से विरत साधु को मासक्षमण (एक मासिक उपवास) आदि लंबी तपश्चर्या से अथवा धर्मपालन के लिए विविध परिषहों आदि के सहन के कारण भलीभांति काया को विविध क्लेश देने से इस लोक में सुख का अभाव रहता है, मगर उसके लिए एक परलोक (जन्म) अच्छा रहता है। क्योंकि उसे आगामी जन्म में परलोक के रूप में अपने तप आदि देह दमन के फल स्वरूप देवलोक के सख या राज्यादि सख प्राप्त होते हैं ॥४४१॥ नरयनिरुद्धमईणं, दंडियमाईण जीवियं सेयं । बहुवायम्मि वि देहे, विसुज्झमाणस्स वरमरणं ॥४४२॥ ___ शब्दार्थ : नरक-तिर्यंच आदि नीचगति के योग्य काम करने वाले राजा, मंत्री आदि मनुष्यों के लिए इहलोक (यह मनुष्यलोक) अच्छा है, क्योंकि यहाँ तो उन्हें पूर्वजन्म के पुण्यफल स्वरूप सभी सुख-साधन मिले हैं, परंतु अगर वे इन सुख साधनों में लुब्ध होकर धर्माचरण करना भूल जाते उपदेशमाला १७१

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