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शब्दार्थ : चारित्र (क्रिया) से रहित ज्ञान निरर्थक है; सम्यग्दर्शन रहित साधुवेष निष्फल है और द्दजीवनिकाय की रक्षा रूप चारित्र से रहित तपश्चरण निष्फल है । उपर्युक्त तीनों से रहित व्यक्ति का मोक्षसाधन निरर्थक है ॥४२५॥ जहा खरो चंदणभारवाही,
भारस्स भागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो,
नाणस्स भागी न हु सुग्गईए ॥४२६ ॥ शब्दार्थ : जैसे गधा केवल चंदन के बोझ को उठाने वाला है । वह चंदन के बोझ को ही ढोता है; परंतु चंदन की सुगंध विलेपन-शीतलतादि का हिस्सेदार नहीं होता, उसी तरह चारित्र (क्रिया) शून्य ज्ञानी भी सिर्फ ज्ञान का ही बोझ दिमाग में रखता है, वह जगत् में सिर्फ ज्ञानी ही कहलाता है, परंतु चारित्रशून्य होने से मोक्ष रूप सुगति (ज्ञान परिमल) का सुख प्राप्त नहीं कर सकता, इसीलिए क्रिया सहित ज्ञान अथवा ज्ञानयुक्त चारित्र हो, यही श्रेष्ठ है, वही आराधना मोक्ष का अमोध उपाय है । इसी उपाय से पूर्व महापुरुषों ने आत्मसाधना की है ॥४२६॥ संपागडपडिसेवी, काएसु वएसु जो न उज्जमइ । पवयणपाडणपरमो, सम्मत्तं पेलवं (कोमल) तस्स ॥४२७॥ उपदेशमाला
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