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शब्दार्थ : जो पुरुष लोक समक्ष निःशंक, प्रकट रूप में पाप का आचरण करता है, छह जीवनिकाय की रक्षा करने में और ग्रहण किये पाँच महाव्रतों का पालन करने में उपदेश करता है, प्रमाद का सेवन करता है तथा जिनशासन की लघुता (बदनामी) करवाता है उसका सम्यक्त्व तथ्यहीन जानना अर्थात् उसको मिथ्यात्वी ही जानना ॥४२७।। चरणकरणपरिहीणो, जइ वि तवं चरइ सुट्ठ अइगुरुअं । सो तिल्लं व किणंतो, कंसिय बुद्धो मुणेयव्वो ॥४२८॥
शब्दार्थ : चरण अर्थात् महाव्रतादि के आचरण (मूलगुण) से और करण अर्थात् आहारशुद्धि आदि उत्तरगुण से रहित कोई साधक एक महीने के उपवास आदि कठोर तपस्या भलीभांति करे तो भी वह विचारमूढ़ केवल कायक्लेश करता है । अर्थात् दुष्कर तपस्या करते हुए अहिंसादि महाव्रतों का पालन करना, चित्त की शुद्धि के लिए शास्त्रविहित मार्ग का सेवन करने की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है । ऐसी संयमयुक्त तपस्या ही महान् लाभदायिनी होती है। उसके बिना ज्ञानरहित कोरी तपस्या क्लेश रूप ही होती है । जैसे बोद्र गाँव का निवासी मूर्ख दर्पण से भर-भर कर तिल बेचता और बदले में उसी दर्पण से भरकर तेल ले लेता था । इससे उसे लाभ के बजाय घाटा ही ज्यादा उठाना
उपदेशमाला
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