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की विधि को संपूर्ण रूप से नहीं जानने से अल्पश्रुत वेषधारी साधु क्या किसी तरह मोक्ष-मार्ग में आत्महित सिद्ध कर सकता है ? कदापि नहीं ॥४१७-४१८॥ सीसायरिकमेण य, जणेण गहियाइं सिप्पसत्थाई । नजंति बहुविहाइं, न चक्खुमित्ताणुसरियाइं ॥४१९॥
शब्दार्थ : ऐसा देखा जाता है कि लौकिक विद्या पढ़ने वाला शिष्य भी विनयपूर्वक कलाचार्यादि को प्रसन्न करके उनसे विद्या ग्रहण करता है । इस प्रकार के विनय के क्रम से अनेक प्रकार के शिल्प व्याकरण आदि शास्त्रों को वह अच्छी तरह से ग्रहण कर सकता है; अर्थात् विनयपूर्वक बहुमान से ग्रहण किया हुआ शास्त्र सफल होता है । परंतु अपनी स्वच्छंदबुद्धि से गुरु का विनय किये बिना अपने आप शास्त्र को देखने या पढ़ने से शास्त्रज्ञान फलीभूत नहीं होता । कहने का मतलब यह है कि जब अपने आप सीखे हए लौकिकशास्त्र भी सीखने वाले को फलीभूत नहीं होते तो फिर लोकोत्तर शास्त्रों के लिए तो कहना ही क्या ? ॥४१९॥ जह उज्जमिउं जाणइ, नाणी तव-संजमे उवायविऊ । तह चक्खुमित्तदरिसण, सामायारी न याति ॥४२०॥
शब्दार्थ : उपाय को जानने वाला ज्ञानी जैसे तप और संयम में उद्यम करना जानता है, अर्थात् ज्ञानी पुरुष सिद्धांत ज्ञान के कारण शुद्ध उद्यम करता है; उसी तरह आँखों से उपदेशमाला