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शब्दार्थ : भाई ! पूर्वजन्म के निर्जीव (मृत) शरीर को अब लातें मारने, पीड़ा देने व विडम्बित करने से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? यदि तुमने पूर्वजन्म में ही उस शरीर को तपसंयमादि में लगाकर थोड़ी-सी भी पीड़ा दी होती तो नरक से भी तुम्हें लौटने का मौका आता अथवा नरक में जाने का अवसर ही न आता ! पर अब क्या हो सकता है ? अब तो अपने किये हुए कर्मों का फल तुम्हें भोगना ही पड़ेगा । इनसे छुटकारा दिलाने में अब कोई भी समर्थ नहीं है ॥२५७॥ जावाऽऽउ सावसेसं, जाव य थोवो वि अत्थि ववसाओ । ताव करिज्ज ऽप्पहियं, मा ससिराया व्व सोइहिसि ॥२५८॥ ___ शब्दार्थ : जहाँ तक अपनी आयु शेष हो, जहाँ तक अपने शरीर और मन में थोड़ा-सा भी उत्साह है, वहाँ तक आत्महितकारी तप-संयमादि का अनुष्ठान कर लेना चाहिए; अन्यथा बाद में शशिप्रभ राजा की तरह पछताने का मौका आयेगा ॥२५८॥ घित्तूण वि सामण्णं, संजमजोगेसु होइ जो सिढिलो ।
पडइ जई वयणिज्जे, सोयइ अ गओ कुदेवत्तं ॥२५९॥ ___ शब्दार्थ : जो साधक साधु जीवन (श्रमण धर्म) ग्रहण करके संयम की साधना में शिथिल (प्रमादी) बन जाता है; वह इस लोक में निन्दा का पात्र होता है; परलोक में भी कुदेवत्व या दुर्गति प्राप्त कर वह पछताता है । शिथिलाचार उपदेशमाला