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शब्दार्थ : जैसे कोई नेत्रविहीन अंधा मार्ग को न जानने वाले मनुष्यों को महाभयंकर अटवी में मार्ग भूलने पर बताना चाहे तो क्या वह अंधा मार्ग बताने में समर्थ हो सकता है ? कदापि नहीं । क्योंकि वह नेत्रहीन व्यक्ति भला ऊबड़ खाबड़ स्थान को नहीं जानने से कैसे बता सकता है? ॥४०५ - ४०६ ॥ एवमगीयत्थो वि हु, जिणवयणपईवचक्खुपरिहीणो । दव्वाइं अयाणंतो, उस्सग्गववाइयं चेव ॥४०७॥
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शब्दार्थ : इसी तरह जो जिनेश्वर भगवान् - कथित वचनदीपक रूपी नेत्र से रहित अगीतार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव वस्तुओं को और उत्सर्ग तथा अपवाद आदि मार्ग को नहीं जानने से दूसरे को मार्ग कैसे बता सकता है ? कथमपि नहीं
बता सकता ॥४०७॥
कह सो जयउ अगीओ ? कह वा कुणउ अगीयनिस्साए ? | कह वा करेऊ गच्छं ? सबालवुड्ढाउलं सो उ ॥ ४०८ ॥
शब्दार्थ : उपर्युक्त अगीतार्थ अपना आत्महित भी कैसे कर सकता है ? अथवा वह अगीतार्थ अनेक बाल, ग्लान और वृद्धादि से युक्त विशाल साधु - गच्छ को संयम - पालन में प्रेरणा कैसे कर सकेगा ? ||४०८ ||
सुत्ते य इमं भणियं, अप्पच्छित्ते य देइ पच्छित्तं । पच्छित्ते अइमत्तं, आसायण तस्स महईओ ॥ ४०९ ॥
उपदेशमाला
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