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शब्दार्थ : और अगीतार्थ साधु द्रव्य स्वरूप को यथास्थित यथार्थ रूप से नहीं जानता; और न वह सजीव, अजीव और मिश्रद्रव्य को भी निश्चयपूर्वक जानता है; यह वस्तु संयमी के लिए कल्प्य है या अकल्प्य है ? इसे भी वह नहीं जानता;
और कौन सी वस्तु बाल-ग्लानादिमुनि के योग्य है, कौन सी नहीं; इसे भी वह नहीं जानता तो बताओ, उसके चारित्र की सिद्धि कैसे हो सकती है ? ॥४०१॥ जहट्ठियखित्तं न याणइ, अद्धाणे जणवए अ जं भणियं । कालं पि य नवि जाणइ, सुभिक्खदुभिक्ख जं कप्पं ॥४०२॥
शब्दार्थ : अगीतार्थ मुनि संयमानुकूल क्षेत्र को यथास्थित यथार्थ रूप से नहीं जानता; विहार करते हुए मार्ग में वसतिशून्य (निर्जन) स्थान में अथवा जनाकुल देश में जो विधि शास्त्रों में बतायी है, उसे भी वह नहीं जानता, तथा सुभिक्ष काल और दुर्भिक्ष काल में जिस वस्तु को कल्प्य या जिसको अकल्प्य कहा गया है, उसे भी अगीतार्थ नहीं जानता ॥४०२॥ भावे हट्ठगिलाणं, नवि जाणइ गाढऽगाढकप्पं च । सहुअसहुपुरिसं तु, वत्थुमवत्थु च नवि जाणे ॥४०३॥
शब्दार्थ : भाव से-यह साधु हृष्टपुष्ट है, इसीलिए उसे यह वस्तु देना योग्य है, और यह ग्लान (रोगी) है इसीलिए इसे उपदेशमाला
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