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शब्दार्थ : सूत्र (शास्त्र) में इस प्रकार कहा है कि जो अगीतार्थ प्रायश्चित्त के अयोग्य निर्दोष को तपस्यादि प्रायश्चित्त (दंड) देता है और प्रायश्चित्त के योग्य को प्रायश्चित्त नहीं देता अथवा न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देता है तो प्रायश्चित्त देने वाले अगीतार्थ का भगवदाज्ञाभंग रूप महा-आशातनाविराधना होती है ॥४०९॥
आसायणमिच्छत्तं, आसायणवज्जणाउ सम्मत्तं । आसायणानिमित्तं, कुव्वइ दीहं च संसारं ॥ ४१० ॥
शब्दार्थ : जिनाज्ञाभंग रूप आशातना करना मिथ्यात्व कहलाता है और आशातना से बचकर जिनाज्ञा - पालन करने को सम्यक्त्व कहा जाता है । जिनाज्ञा की यत्नपूर्वक आराधना करने वाला सम्यक्त्वरत्न की प्राप्ति करता है; परंतु स्वेच्छाचारी जिन - आज्ञा का भंगकर भयंकर आशातना करने वाला होता है, वह चिरकालपर्यंत चारगति रूप संसार में परिभ्रमण करता है ॥ ४१० ॥
एए दोसा जम्हा, अगीयंजयंतस्सऽगीयनिस्साए । वट्टावय गच्छस्स य, जो य गणं देइऽगीयस्स ॥४११ ॥
शब्दार्थ : ऊपर बताये कारणों से तप, जप, संयम में यतना करते हुए अगीतार्थ को भी पूर्वोक्त दोष लगते हैं, अगीतार्थ की निश्रा में रहकर तप, जप, संयम करने वाले को
उपदेशमाला
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