Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 155
________________ यह वस्तु ही देना योग्य है, इसे वह नहीं जानता । विशिष्ट कार्य आ पड़ने पर अमुक प्रकार का व्यवहार करना योग्य है, और स्वाभाविक कार्य में अमुक व्यवहार ही करना योग्य है; यह भी वह नहीं जानता; और यह साधक समर्थ शरीर वाला है या असमर्थ शरीर वाला ? अथवा यह समर्थ साधु ( आचार्यादि) है, यह असमर्थ (सामान्य साधु है ? ) इस प्रकार के वस्तुस्वरूप को भी वह नहीं जानता ||४०३|| पडिसेवणा चउद्धा, आउट्टिपमायदप्पकप्पे य । न वि जाणइ अग्गीओ, पच्छित्तं चेव जं तत्थ ॥ ४०४ ॥ शब्दार्थ : प्रतिसेवना अर्थात् निषिद्धवस्तु का आचरण चार प्रकार से होता है - १. जानबूझकर इरादतन पाप करना, २. प्रमादवश पाप करना, ३. घमंड से अहंकारवश पाप करना और ४. किसी गाढ़ कारण को लेकर पाप करना । पापसेवन के इन चार प्रकारों (आकुट्टि, प्रमाद, दर्पिक, कल्पिक) के शास्त्रोक्त रहस्य को अगीतार्थ नहीं जानता और उसके योग्य प्रायश्चित-विधान को भी वह नहीं जानता ॥४०४॥ जह नाम कोइ पुरिसो, नयणविहूणो अदेसकुसलो य । कंताराडविभीमे, मग्गपणस्स सत्थस्स ॥४०५॥ इच्छइ य देसियत्तं, किं सो उ समत्थ देसियत्तस्स ? | दुग्गाइ अयाणंतो, नयणविहूणो कहं देसे ॥ ४०६ ॥ युग्मम् उपदेशमाला १५५

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