________________
जधन्य के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार-चार प्रकार के हैं और उत्तरगुण के तो पिंडविशुद्धि आदि अनेक भेद हैं । दर्शन (सम्यक्त्व) के और ज्ञान के आठ-आठ भेद प्रसिद्ध हैं । सर्वज्ञकथित समस्त सदाचार को अच्छी तरह जानकर अतिचारादि दोष रहित चारित्र की आराधना करना ही श्रमणत्व का सार है। अन्यथा ज्ञानशून्य साधक की करणी अंधे की तरह अनर्थकारी है ॥३९७।। जं जयइ अगीयत्थो, जं च अगीयत्थनिस्सिओ जयइ । वडावेइ य गच्छं, अणंत संसारिओ होइ ॥३९८॥
शब्दार्थ : जो स्थानांगादि तथा छेदसूत्रों के रहस्य को नहीं जानता, वह अगीतार्थ, यदि तप, जप, संयम आदि क्रिया में उद्यम करता है अथवा अगीतार्थ की निश्रा में तपजपादि क्रिया करता है अथवा स्वयं अगीतार्थ होने पर भी यदि साधुसाध्वी रूप गच्छ को तप-संयम आदि धर्मक्रियाओं व अनुष्ठानों में प्रेरणा करता है तो वह अगीतार्थ
अनंतसंसारी होता है। गीतार्थ मुनि का अथवा उसकी निश्रा में रहकर किया हुआ क्रियानुष्ठान ही मोक्षफल देने वाला हो सकता है ॥३९८॥ कह उ जयंतो साहू, वट्टावेई य जो उ गच्छं तु । संजमजुत्तो होउं, अणंतसंसारिओ होइ ? ॥३९९॥ उपदेशमाला
१५२