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अगीतार्थ हो, कोई उपाध्याय या आचार्य हो और कोई स्थविरादि या रत्नाधिक होते हैं; उन सभी को इसी तरह ज्ञानादि गुण की दृष्टि से पुरुषार्थ का विचार करना चाहिए और अन्य पदार्थों का भी द्रव्य-क्षेत्र - काल और भाव, इन चारों की अपेक्षा से विचार करना चाहिए । अर्थात्लाभालाभ का विचार करने वाले को पहले चारों ओर से सभी पहलुओं को लेकर किसी वस्तु के विषय में विचार करना चाहिए || ३९५॥
चरणाइयारो दुविहो, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे छट्टाणा, पढमो पुण नवविहो तत्थ ॥३९६॥
शब्दार्थ : चारित्राचार के दो भेद हैं- मूलगुण और उत्तरगुण । इन दोनों में से भी गुणविषयक चारित्राचार के छह भेद हैं - १. अहिंसा, २. सत्य, ३. अस्तेय ४. ब्रह्मचर्य, ५. मूर्च्छारहित अपरिग्रह और ६. रात्रि भोजन का त्याग । उसमें प्रथम अहिंसा महाव्रत में पाँच स्थावर (पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और चार त्रस-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय) इन नौ प्रकार के जीवों की हिंसा का त्रिकरण त्रियोग से त्याग होता है ॥ ३९६ ॥ सेसुक्कोसो मज्झिमं जहन्नओ, वा भवे चउद्धा उ । उत्तरगुणणेगविहो, दंसणनाणेसु अट्ठ ॥ ३९७ ॥
शब्दार्थ : शेष सत्यादि पाँच मूलगुण उत्कृष्ट, मध्यम और
उपदेशमाला
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