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शब्दार्थ : पाँच समितियों से युक्त, तीन गुप्तियों से संयमरक्षा करने वाले, सत्रह प्रकार के अथवा षड्जीवनिकाय की रक्षा रूप संयम का पालन करने वाले, बारह प्रकार के तप करने में उद्यत तथा पाँच महाव्रत रूप क्रिया में सदा सावधान रहने वाले मुनि किसी कारणवश सौ वर्षों तक भी एक ही क्षेत्र में रहे तो भी आराधक है । श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञापूर्वक चलने वाले मुनि को एक स्थान पर रहने में कोई दोष नहीं है ||३९१॥
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तम्हा सव्वाणुन्ना, सव्वनिसेहो य पवयणे नत्थ । आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकंखि व्व वाणियओ ॥ ३९२ ॥
शब्दार्थ : ऊपर कही हुई बातों से ज्ञात होता है कि जिनशासन में ऐसा एकान्त विधिनिषेध (सर्वथा ऐसा करना अथवा ऐसा बिल्कुल नहीं करना) नहीं है, क्योंकि जिनशासन स्याद्वादमय है, इसीलिए लाभाकांक्षी वणिक् के समान लाभालाभ का विचारकर करने योग्य कार्य करना और छोड़ने योग्य कार्य छोड़ देना ही इष्ट है ॥३९२॥
धम्मंमि नत्थि माया, न य कवडं आणुवत्तिभणियं वा । फुडपागडमकुडिल्लं, धम्मवयणमुज्जयं जाण ॥ ३९३॥
शब्दार्थ : साधुधर्म में माया है ही नहीं; क्योंकि माया और धर्म दोनों में परस्पर विरोध है । धर्म में दूसरे को ठगना
उपदेशमाला
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