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दगपाणं पुप्फफलं, अणेसणिज्जं गिहत्थकिच्चाई। अजया पडिसेवंति, जइवेसविडंबगा नवरं ॥३४९॥
शब्दार्थ : असंयमी-शिथिलाचारी सचित्त जल का सेवन करते हैं, सचित फल-फूल आदि का उपभोग करते हैं, आधाकर्मी आदि दोषों से युक्त आहारादि ग्रहण करते हैं; गृहस्थ के समान आरंभ-समारंभ आदि सावद्यकर्म करते हैं और संयम के प्रतिकूल आचरण करते है। वे साधुवेष की केवल विडंबना (बदनाम) करने वाले हैं । वे थोड़ा-सा भी परमार्थ सिद्ध नहीं कर सकते ॥३४९॥ ओसन्नया अबोही, य पवयणउब्भावणा य बोहिफलं ।
ओसन्नो वि वरं पिहु, पवयणउब्भावणापरमो ॥३५०॥ __शब्दार्थ : साधुधर्म की मर्यादा के विरुद्ध उपर्युक्त
आचरण करके जो भ्रष्टचारित्री हो जाता है, वह इस जन्म में प्रत्यक्ष अपमानित व निदिन्त होता ही है, अगले जन्म में भी उसे बोधि (सद्धर्म के ज्ञान) की प्राप्ति नहीं होती । क्योंकि प्रवचन (शासन) की प्रभावना ही बोधिफल का कारण है । इसीसे आत्मार्थी मुनिवर की उन्नति हो सकती है। प्रवचन की निन्दा या बदनामी करके उसे नीचा दिखाने से बोधिलाभ नहीं हो सकता । मगर यदि कोई साधक किसी प्रबलकर्म के कारण संयममार्ग में शिथिल हो गया, लेकिन भवभीरु है, आत्मनिन्दा (पश्चात्ताप) करता है और आत्मार्थी मुनियों की उपदेशमाला
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