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दूसरे साधुओं से पूछता भी है कि "मैं क्या करूँ ? मेरे योग्य कोई सेवा बताइए;' वह साधु धर्म से रहित है और केवल वेष धारण करके अपनी आजीविका चलाने वाला पार्श्वस्थ साधु है ||३७८ ॥
पहगमणवसहि- आहार - सुयणथंडिल्लविहिपरिट्ठवणं । नायरइ नेव जाणइ, अज्जावट्टावणं चेव ॥ ३७९॥
शब्दार्थ : जो यतना से मार्ग देखकर चलना, 'निस्सीही पूर्वक' स्वाध्यायस्थान या उपाश्रय में प्रवेश करना, प्रतिलेखन- प्रमार्जन करना, स्वाध्याय करना, बयालीस दोष रहित आहार लाकर समभाव से खाना, मलमूत्रादि को निर्दोष स्थान पर विवेक से परठना (डालना) अथवा अशुद्ध आहार-पानी, उपकरण आदि परठना; इन सभी साध्वाचारों को जानते हुए भी धर्मबुद्धि रहित होने से आचरण नहीं करता और साध्वियों को धर्म में प्रवृत्त करना नहीं जानता ॥३७९॥ सच्छंदगमण-उद्वाण- सोयणो, अप्पणेण चरणेण । समणगुणमुक्कजोगी, बहुजीवखयंकरो भमइ ॥ ३८० ॥
शब्दार्थ : अपनी इच्छानुसार स्वच्छन्दता से (बड़ों की अनुमति लिये बिना) जाने-आने, सोने, उठने और स्वमति कल्पित आचार से चलने वाला, ज्ञानादि श्रमणगुणों से रहित, मन-वचन-काया का खुलेआम मनमाना उपयोग करने वाला और अनेक जीवों का संहार करने वाला साधु इधर-उधर भटकता रहता है ||३८०||
उपदेशमाला
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