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शरीर लड़खड़ा रहा हो और इस कारण जिनेश्वर-भगवान् कथित संयम-संबंधी सारी क्रियाओं का यथोक्त रूप से आचरण करने में कदाचित् समर्थ न हो; तथापि वह दुर्भिक्ष और रोगादि आफतों के समय में भी शरीरबल और मनोबल को छिपाता नहीं; कपट का आश्रय छोड़कर, चारित्र में यथाशक्ति उद्यम करता रहता है, वही वास्तव में सच्चा साधु संयति कहलाता है ॥३८३-३८४॥ अलसो सढोऽवलित्तो, आलंबणतप्परो अइपमाई । एवंठिओ वि मन्नइ, अप्पाणं सुठ्ठिओ मि त्ति ॥३८५॥ __शब्दार्थ : जो धर्मक्रिया करने में आलसी, मायावी,
अभिमानी, गलत आलंबन लेने को तैयार रहता हो, तथा निद्रा विकथादि प्रमाद के दोषों से पूर्ण होने पर भी 'मैं अपनी आत्मा में सुस्थिर संयमी साधु हूँ' इस प्रकार अपने आपको मानता है । ऐसे धर्माचरण मायावी को बाद में पश्चात्ताप करना पड़ता है ॥३८५॥ जोऽवि य पाडेऊणं, मायामोसेहिं खाइ मुद्धजणं । तिग्गाममज्झवासी, सो सोयइ कवडखवगु व्व ॥३८६॥
शब्दार्थ : ऐसा कपटी साधु झूठा वचन बोलकर दंभ, द्रोह करने से मायामृषावाद नामक १७ वें पापस्थानक का सेवन कर भोले भाले लोगों को विविध कूटकपट युक्त चेष्टा से आकर्षित करके अपने मिथ्याजाल में फंसा लेता है। ऐसे उपदेशमाला
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