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वस्थिव्व वायपुन्नो, परिब्भमइ जिणमयं अयातो । थद्धो निव्विन्नाणो, न य पिच्छइ किंचि अप्पसमं ॥ ३८९ ॥
शब्दार्थ : भवभ्रमण रोग को मिटाने के लिए औषध के समान जैनधर्म को पाकर भी जो उसे ठीक तरह से नहीं जानता; फिर भी थोड़ा सा ज्ञान पाकर हवा से भरी हुई मशक के समान उछलता फिरता है, अभिमान में चूर होकर अच्छृंखलता से स्वच्छंद भटकता है और विशेष ज्ञान-विज्ञान न होने पर भी उद्धत होकर जगत् में किसी को अपने समान नहीं मानता ॥ ३८१ ॥
सच्छंदगमण- उट्ठाण - सोयणो, भुंजए गिहीणं च । पासत्थाई द्वाणा, हवंति एमाइया एए ॥ ३८२॥
शब्दार्थ : अपने गुरु को पराधीन व अकेले छोड़कर स्वच्छंदतापूर्वक जो इधर-उधर घूमता - सोता - उठता है; तथा गृहस्थों के बीच में भोजन करता है; ये सब लक्षण पार्श्वस्थादि साधु के हैं ||३८२॥ जो हुज्ज उ असमत्थो, रोगेण व पिल्लिओ झरियो । सव्वमवि जहाभणियं, कयाइ न तरिज्ज काउं जे ॥३८३ ॥ सो वि य निययपरक्कमववसायधिईबलं अगूहिंतो । मुत्तूण कूडचरियं, जइ जयइ अवस्स जई ॥३८४॥
शब्दार्थ : जो साधु स्वाभाविक रूप से असमर्थ -अशक्त हो, अथवा श्वास, ज्वरादि रोग से पीड़ित हो और जिसका
उपदेशमाला
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