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गीयत्थं संविग्गं, आयरिअं मुयइ चलइ गच्छस्स । गुरुणो य अणापुच्छा, जं किंचि देइ गिण्हइ वा ॥ ३७६ ॥
शब्दार्थ : सूत्रार्थ के विशेषज्ञ और मोक्षमार्ग के अभिलाषी अपने आचार्य - महाराज को जो साधु बिना कारण के छोड़ देता है, गच्छ के प्रतिकूल बोलता है, तथा गुरुमहाराज की आज्ञा के बिना ही दूसरे से वस्त्रादि ले लेता है अथवा दूसरे को दे देता है ||३७६ ॥
गुरुपरिभोगं भुंजइ, सिज्जासंथारउवगरणजायं । कित्तिय तुमं ति भासइ, अविणीओ गव्विओ लुद्धो ॥३७७॥
शब्दार्थ : जो गुरुमहाराज के उपभोग्य शयनभूमि या शयनकक्ष, तृण, संथारा ( शयनासन), कपड़ा, कंबल आदि उपकरणों को स्वयं उपयोग में लेता है और गुरु के बुलाने पर वह अविनय से अभिमान से, विषयादि में लंपट बोलता है, परंतु 'अविनयपूर्वक अभिमान में आकर 'रे तू' आदि तुच्छ शब्दों से बोलता है; 'गुरुदेव' 'आप' भगवन् आदि सम्मान - सूचक शब्दों से नहीं ||३७७॥ गुरुपच्चक्खाणगिलाण सेहबालाउलस्स गच्छस्स । न करेइ नेव पुच्छइ, निद्धम्मो लिंगउवजीवी ॥३७८॥
शब्दार्थ : जो साधु आचार्य, उपाध्याय, गुरुमहाराज, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित, बाल-मुनि और वृद्ध साधुओं आदि गच्छसमुदाय का कुछ भी कार्य नहीं करता, और न
उपदेशमाला
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