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(उपवास) आदि तप नहीं करता और न मासकल्प की मर्यादा से नवकल्पी विहार करता है ॥३७०॥ नीयं गिण्हइ पिंडं, एगागिअच्छए गिहत्थकहो । पावसुयाणि अहिज्जइ, अहिगारो लोगगहणंमि ॥३७१॥
शब्दार्थ : जो प्रतिदिन एक ही घर से आहार-पानी नियमित ग्रहण करता है, समुदाय में न रहकर अकेला ही रहता है, गृहस्थसंबंधी कथा करता है, पापशास्त्रों-ज्योतिष तथा वैद्यक आदि का अध्ययन करता है तथा लोकरंजन के लिए चमत्कार, कौतुक या लौकिक लोगों की बातों में हाँ में हाँ मिलाकर बड़प्पन प्राप्त करता है; परंतु स्वयं संयम क्रिया करके महत्ता प्राप्त नहीं करता ॥३७१॥ परिभवइ उग्गकारी, सुद्धं मग्गं निगृहए बालो । विहरइ सायागरुओ, संजमविगलेसु खित्तेसु ॥३७२॥
शब्दार्थ : और जो मूर्खतावश उग्रविहारी मुनियों की निंदा करता है, उपद्रव करता-कराता है, लोगों के सामने शुद्ध मोक्षमार्ग छिपाता है और जिसमें सुसाधु नहीं विचरते, उस क्षेत्र में सुखशीलता से घूमता है ॥३७२॥ उग्गाइ गाइ हसइ य असंवुडो, सइ करेइ कंदप्पं । गिहिकज्जचिंतगो वि य, ओसन्ने देइ गिण्हइ वा ॥३७३॥ ___शब्दार्थ : जो गला फाड़कर जोर-जोर से चिल्लाकर गीत गाता है, हँसता है, कामोत्तेजक कथाएँ कहता है, गृहस्थों के उपदेशमाला
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