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शब्दार्थ : जो दो कोस से उपरांत (दूर) क्षेत्र में आहारपानी ले जाकर उसका सेवन करता है तथा तीन प्रहर से उपरांत काल तक आहार रखकर खाता है, किसी के द्वारा नहीं दिये हुए आहारादि का उपभोग करता है, सूर्योदय के पहले अशनादि चार प्रकार के आहार ले लेता है । ऐसे लक्षणों वाला साधु पासत्थादि कहलाता है || ३६२॥ ठवणकुले न ठवेई, पासत्थेहिं च संगयं कुणइ । निच्चामवज्झाणरओ, न य पेहपमज्जणासीलो ॥३६३॥
शब्दार्थ : जो स्थानाकुल अर्थात् वृद्ध, ग्लान, रुग्ण, आदि साधुओं की अत्यंत भक्ति करने वाले श्रावक के घर से बिना कारण आहार लेने जाता है, ऐसे घर से आहार लेने से रुकता नहीं; आचारभ्रष्ट साधुओं का संग करता है; हमेशा दुर्ध्यान में तत्पर रहता है और दृष्टि से देखकर या रजोहरणादि से प्रमार्जन करके भूमि पर वस्तु रखने का आदी नहीं है || ३६३॥ रीयइ य दवदवाए, मूढो परिभवइ तहय रायणिए । परपरिवायं गिण्हइ, निठुरभासी विगहसीलो ॥ ३६४ ॥
शब्दार्थ : और बिना उपयोग के जो जल्दी-जल्दी चलता है और जो मूढ़, ज्ञानादिगुणरत्नों में अधिक दीक्षा ज्येष्ठ का अपमान करता है, उनकी बराबरी करता है, दूसरों की निन्दा करता है, निष्ठुर होकर कठोर वचन बोलता है और स्त्री आदि की विकथाएँ करता रहता है ॥ ३६४ ॥
उपदेशमाला
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