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या नया बनवाने आदि में जो आसक्त रहता है, रातदिन जो उसी की चिन्ता करता रहता है; अपने पास या अपने नाम से या अपने भक्तों के पास अपने स्वामित्त्व का सोना आदि परिग्रह रखने पर भी जो स्वयं को निर्ग्रथ या द्रव्यत्यागी कहलवाता हुआ विचरता है || ३५७||
नह - दंत - केसरोमे, जमेइ उच्छोलधोयणो अजओ । वहइ य पलियंकं, अइरेगपमाणमत्थुरइ ॥ ३५८ ॥
शब्दार्थ : जो नख, दाँत, सिर के बाल और शरीर के रोमों को संवारता-सजाता है; जो गृहस्थ के समान काफी मात्रा में पानी लेकर हाथ-पैर आदि अंगों को धोता है; यतनारहित रहता है, पलंग, गद्दे, तकिये, बिस्तर आदि का उपयोग करता है और जो प्रमाण (नाप) से अधिक संथारा (शयनासन), उत्तरपट्टा आदि वस्त्रों का उपयोग करता है ॥ ३५८ ॥ सोवइ य सव्वराई, नीसट्टमचेयणो न वा झरइ । न पमज्जंतो पविसइ, निसिहीयावस्सियं न करेइ ॥ ३५९ ॥
शब्दार्थ : जो सारी रात अमर्यादित बेखटके, निश्चित और गाफिल होकर चेतनारहित, जड़ काष्ट की तरह सोया रहता है और स्वाध्याय आदि नहीं करता, रात को अंधेरे में रजोहरण आदि से प्रमार्जन किये बिना ही उपाश्रय में घूमता है तथा प्रवेश करते समये 'निस्सीही निस्सीही' और निकलते समय 'आवस्सही आवस्सही' उच्चारण करने इत्यादि साधुसमाचारी का पालन नहीं करता ॥ ३५९॥
उपदेशमाला
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