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__शब्दार्थ : जो सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक पूरे दिन भर खाता रहता है, साधुओं की मंडली (मंडल) में साथ बैठकर आहार नहीं करता; परंतु अकेला ही भोजन करता है, तथा आलस्यवश भिक्षा के लिए सब जगह नहीं घूमता; या अपने स्थान पर ही गृहस्थ से आहार मंगवा लेता है, या खास-खास थोड़े-से घरों से आहार ले आता है ॥३५५।। कीबो न कुणइ लोयं, लज्जइ पडिमाइ जल्लमवणेइ । सोवाहहो य हिंडइ, बंधइ कडिपट्टयमकज्जे ॥३५६॥
शब्दार्थ : जो मन का दुर्बल होकर केशों का लोच नहीं करता; जिसे कायोत्सर्ग आदि व प्रतिमा करने में लज्जा आती है, जो शरीर का मैल हाथ से या जल से उतारता है, जूते पहनकर चलता है और बिना कारण कमर पर चोलपट्टा बांधता है ॥३५६॥ गाम देसं च कुलं, ममायए पीढफलगपडिबद्धो ।
घरसरणेसु पसज्जइ, विहरइ य सकिंचणो रिक्को ॥३५७॥ __शब्दार्थ : किसी या किन्हीं गाँव, नगर, देश (राष्ट्र) और
कुल आदि को, 'ये मेरे हैं' इस प्रकार अपना मानकर जो उन पर ममता (आसक्ति) रखता है; चौकी (बाजोट), पट्टा (तख्त) आदि का इतना मोह है, उन्हें छोड़ने को या उनके बिना एक दिन भी चला लेने को जिसका जी नहीं चाहता; मकान (घर, उपाश्रय, भवन, सदन आदि) की मरम्मत कराने उपदेशमाला
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