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शब्दार्थ : यदि कोई पुरुष विष लता के महावन में प्रतिकूल हवा चलने पर प्रवेश करता है, तो वह उस जहरीली हवा के स्पर्श और गंध से थोड़े समय में ही खत्म हो जाता है । इसी तरह माया भी विषलतामयी अटवी के सदृश महाभयंकर है । इसके स्पर्शमात्र से ही सम्यक्त्व, चारित्र आदि गुणों का विनाश हो जाता है ॥ ३१३॥ घोरे भयागरे सागरंमि, तिमि - मगर - गाह - पउरंमि । जो पविसइ सो पविसइ, लोभमहासागरे भीमे ॥ ३९४ ॥
शब्दार्थ : जो मनुष्य, मच्छ, मगरमच्छ और ग्राहादि जल-जंतुओं से परिपूर्ण महाभय की खान सागर में प्रवेश करता है, वह मरणांत संकट का प्रत्यक्ष अनुभव करता है । उसी तरह जो जीव लोभ रूपी महासमुद्र में प्रवेश करता है, वह मानो महासमुद्र में डूबकर अत्यंत महाभयंकर अनर्थ को प्राप्त करता है || ३१४॥
गुणदोसबहुविसेसं, पयं-पयं जाणिऊण नीसेसं । दोसेहिं जणो न, विरज्जइ त्ति कम्माण अहिगारो ॥३१५॥
शब्दार्थ : मोक्ष के हेतु ज्ञानादि गुणों और संसार के हेतु क्रोधादि दोषों के महान अंतर को जो व्यक्ति श्री सर्वज्ञकथित सिद्धांत से कदम-कदम पर पूरे तौर पर जानता है, मगर फिर भी क्रोधादि दोषों से विरक्त नहीं होता, यह उसके कर्म का ही दोष है । अर्थात् जानते हुए भी कर्म के वश दोषों को नहीं छोड़ सकता ॥३१५॥
उपदेशमाला
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