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शब्दार्थ : साधुपुरुष स्त्री के गुह्य स्थान, (गुप्तांग), जांघ, मुख, कांख वक्षस्थल और स्तनों आदि में से किसी भी अंग पर कदाचित् दृष्टि पड़ जाय तो उसी समय अपनी दृष्टि वहा से हटा लेते हैं । स्त्री की दृष्टि से अपनी दृष्टि नहीं मिलाते और किसी कार्यवश मुनि स्त्री से बात भी करते हैं तो नीचा मुख रखकर ही ॥३३७।। सज्झाएण पसत्थं झाणं, जाणइ य सव्वपरमत्थं ।
सज्झाए वÉतो, खणे खणे जाइ वेरग्गं ॥३३८॥ ___शब्दार्थ : शास्त्र-संबंधी, वाचना, पृच्छना, परावर्तना,
अनुप्रेक्षा और धर्मकथा रूप पंचविध स्वाध्याय करने वाला मुनिवर्य प्रशस्त ध्यान में लीन हो जाता है तथा स्वाध्याय से वह सारे परमार्थ (तत्त्व या रहस्य) को अच्छी तरह से जान लेता है । स्वाध्याय करने वाले मुनि को क्षण-क्षण वैराग्य प्राप्त होता रहता है । अर्थात् राग-द्वेष रूपी विष दूर होने से निविष हो जाता है ॥३३८।। उड्डमह तिरियलोए (नरया), जोइसवेमाणिया य सिद्धी य ।
सव्वो लोगालोगो, सज्झायविउस्स पच्चक्खो ॥३३९॥ ___ शब्दार्थ : स्वाध्याय-वेत्ता मुनि के ऊर्ध्वलोक, अधोलोक
और तिर्यग्लोक इन तीनों लोकों का स्वरूप, चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिष्क, वैमानिक देवों का निवास और सिद्धिस्थान, मोक्ष और सर्वलोकालोक का स्वरूप प्रत्यक्षवत् हो जाता है । चौदह उपदेशमाला
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