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रज्जूप्रमाण लोक और इससे भिन्न अपरिमित अलोक का स्वरूप भी स्वाध्याय के बल से मुनि जान जाता है ॥३३९॥ जो निच्चकालतवसंजमुज्जओ, न वि करेइ सज्झायं । अलसं सुहसील जणं, न वि तं ठावेइ साहुपए ॥३४०॥
शब्दार्थ : जो साधु निरंतर तप और पाँच आश्रव के निरोध रूप संयम में उद्यत रहता हो, लेकिन अध्ययनअध्यापन रूपी स्वाध्याय नहीं करता या उससे विमुख रहता है, उस प्रमादी, सुखशील मुनि को लोग साधु मार्ग में साधु रूप में नहीं मानते । क्योंकि 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' अर्थात् ज्ञान और क्रिया इन दोनों से ही मोक्ष प्राप्त होता है । अतः दोनों की आराधना करनी चाहिए ॥३४०॥ विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो ? ॥३४१॥
शब्दार्थ : विनय ही शासन अर्थात् जिनभाषित द्वादशांगी में अथवा संघ में मूल है । विनयगुण से अलंकृत साधु ही संयमी होता है । विनय से रहित साधु के धर्म ही कहाँ और तप ही कहाँ ? अर्थात् जैसे मूल के बिना शाखा रह नहीं सकती, वैसे ही विनय के बिना धर्म (संयम) और तप दोनों नहीं टिक सकते ॥३४१॥ विणओ आवहइ सिरिं, लहइ विणीओ जसं च कित्तिं च । न कयाइ दुव्विणीओ, सकज्जसिद्धिं समाणेइ ॥३४२॥ उपदेशमाला
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