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कषायों को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकता । उसका कारण है-आठ कर्मों के समुदाय का अति बलवान होना । मतलब यह है कि कर्म के परवश होकर यह जीव अकार्य करने में तत्पर हो जाता है ॥३२२॥ जह-जह बहुस्सुओ सम्मओ य, सीसगणसंपरिवुडो य । अविणिच्छिओ य समए, तह तह सिद्धंतपडिणीओ ॥३२३॥
शब्दार्थ : जितने-जितने जिसने शास्त्र सुने हैं, या पढ़े हैं, जो बहुत-से अज्ञानी लोगों द्वारा सम्मान्य है, जिसने शिष्य परिवार भी बहुत बढ़ा लिया है, किन्तु सिद्धांत के बारे में हमेशा डांवाडोल रहता है, दृढ़ निश्चयी बनकर सिद्धांत पर अटल नहीं रहता, न उसे कोई अनुभव है, न शास्त्रों का रहस्य ही जानता है तो उसे सिद्धांत (धर्म) का शत्र समझना । क्योंकि ऐसे अनिश्चयी साधक के कारण धर्म-शासन की निंदा या बदनामी होती है । तत्त्वों का विज्ञ यदि अल्पश्रुत (थोड़े शास्त्र पढ़ा) हो तो भी आराधक है; किन्तु बहुश्रुत (अनेक शास्त्रों को पढ़ा हुआ) होने पर भी वह तत्त्वज्ञ न हो तो वह मोक्षमार्ग का आराधक नहीं, अपितु विराधक है ॥३२३।। पवराइं वत्थपायासणोवगरणाई, एस विभवो मे ।
अवि य महाजणनेया, अहं ति अह इड्ढिगारविओ ॥३२४॥ ___ शब्दार्थ : ममता में मूढ़ बना हुआ साधु ये श्रेष्ठ वस्त्र, पात्र, आसन और उपकरण आदि मेरी संपत्ति हैं, तथा मैं उपदेशमाला
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