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शब्दार्थ : सुविहित साधु धर्म-समाधि से उद्विग्न (चलित) पंचेन्द्रिय के विषयों में मन को बार-बार लगाना, धर्मध्यान में विमुखता, चित्त में अत्यंत उद्वेग, विषयों में मन की व्यग्रता और अनेक प्रकार के चपल विचार करना कि मैं यह खाऊँ, यह पीऊँ, यह पहनूँ इत्यादि मानसिक संकल्पों का हेतु अरति है । सुविहित साधु को वह हो ही कैसे सकती है ? ॥३१८॥
सोगं संतावं अधिइंच, मन्नुं च वेमणस्सं च । कारुण्ण-रुन्नभावं, न साहुधम्मंमि इच्छंति ॥३१९॥
शब्दार्थ : अपने बारे में मृत्यु का वहम करना, अतिगाढ़ संताप करना कि अरे ! मैं किस तरह इस गाँव को या ऐसे उपाश्रय को छोड़ सकूँगा ? अधीरता से ऐसा विचार करना, इन्द्रियों का रोध अथवा विकलता, मन की विकलता अर्थात् अत्यंत शोकजन्य क्षोभवश आत्महत्या का विचार करना, सिसक-सिसककर रोना अथवा फूट-फूटकर रोना, यह सब शोक का परिवार है । अपने धर्म में स्थिर साधु इसमें से एक की भी इच्छा नहीं करते ||३१९ ॥
भय - संखोह - विसाओ, मग्गविभेओ बिभीसियाओ य । परमग्गदंसणाणि य, दढधम्माणं कओ हुँति ? ॥३२० ॥
शब्दार्थ : कायरता के कारण अकस्मात् भयभीत होना, क्षोभ व विषाद, चोरादि को देखकर भाग जाना, दीनता
उपदेशमाला
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