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महाजनों, बड़े-बड़े धनाढ्यों, अग्रगण्यों तथा साधु-साध्वियों आदि का नेता हूँ, ऐसा विचार करने वाला ऋद्धिगौरव से युक्त कहलाता है । अथवा उसकी प्राप्ति न हो तो उस ऋद्धि की इच्छा करना भी ऋद्धिगौरव कहलाता है ॥३२४॥ अरसं विरसं लूहं, जहोववन्नं च निच्छए भोत्तूं । निद्धाणि पेसलाणि य, मग्गइ रसगारवे गिद्धो ॥३२५॥ __ शब्दार्थ : रसगौरव में लोलुप साधु भिक्षा के लिए घूमते समय स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुए नीरस, जीर्ण, ठंडे, बासी और वाल आदि रूखे-सूखे आहार-पानी को खाना नहीं चाहता; परंतु घी आदि से बना हुआ स्निग्ध, स्वादिष्ट, पौष्टिक मनोज्ञ आहार (दाताओं से) मांगता है या उसकी इच्छा करता है। उस साधु को रसगौरव अर्थात् जिह्ना के रस के गौरव में लोलुप जानना ॥३२५॥ सुस्सूसई सरीरं, सयणासणवाहणपसंगपरो । सायागारवगुरुओ, दुक्खस्स न देइ अप्पाणं ॥३२६॥
शब्दार्थ : अपने शरीर की शुश्रूषा-स्नानादि से मंडित करने वाला और कोमल गुदगुदाने वाली शय्या तथा बढ़िया, कीमती आसन; पादपीठ और कारण बिना किसी (नदी पार होने आदि) गाढ़ कारण के बहाने से नौका आदि सवारी का उपयोग करने में आसक्ति करनेवाला व सातागारव से उपदेशमाला
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