________________
रखना, मार्ग को छोड़कर सिंहादि भय से अन्य मार्ग को पकड़ना, भूतप्रेत आदि से डर जाना (ये दो जिनकल्पी साधु के लिए हैं) भय से अथवा स्वार्थ से अन्य धर्म के मार्ग का प्रशंसात्मक शब्दों में कथन करना, दूसरे के डर से गलत मार्ग बताना । ये सभी भय के ही प्रकार हैं । दृढ़धर्मी साधुओं को ये भय कैसे सता सकते हैं ? वे तो भय-रहित निर्भय रहते हैं ॥३२०॥ कुच्छा चिलीणमलसंकडेसु, उव्वेवओ अणिढेसु ।
चक्खुनियत्तणमसुभेसु, नत्थि दव्वेसु दंताणं ॥३२१॥ ___शब्दार्थ : अत्यंत मलिन पदार्थों को देखकर जुगुप्सा (नफरत) करना, मृत शरीर, मलिन शरीर अथवा गंदे कपड़े आदि देखकर सिहर उठना, उद्विग्न होना, कीड़ियों के द्वारा भक्षण किये हुए और मृत कुत्ते आदि अशुभ वस्तु को देखकर दृष्टि को फेर लेना, इत्यादि सब जुगुप्सा के ही प्रकार हैं । जुगुप्सा साधुओं के पास भी नहीं फटकनी चाहिए ॥३२१॥ एवं पि नाम नाऊण, मुज्झियव् ति नूण जीवस्स । फेडेऊण ण तीरइ, अइबलिओ कम्मसंघाओ ॥३२२॥
शब्दार्थ : पूर्वोक्त कषायों, नोकषायों आदि को प्रसिद्ध जिनवचन से भलीभांति जानकर भी क्या जीव का मूढ बने रहना योग्य है ? जरा भी योग्य नहीं । तो फिर किसलिए जीव मूढ़ होता है ? उसके उत्तर में कहते हैं-जीव उन उपदेशमाला