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संसार में दुःखी होता है । अर्थात् माया से बांधे हुए कर्म करोड़ों जन्मों में भोगे बिना नहीं छूटते । इसीलिए इसका त्याग करना चाहिए ||३०६-३०७ ॥
लोभो अइसंचयसीलया य, किलित्तणं अइममत्तं । कप्पण्णमपरिभोगो, नट्ठ-विणट्ठे य आगलं ॥ ३०८ ॥ मुच्छा अइबहुधणलोभया य, तब्भावभावणा य सया । बोलंति महाघोरे, जम्ममरणमहासमुद्दमि ॥ ३०९॥ युग्मम्
शब्दार्थ : सामान्य लोभ, अनेक किस्म की वस्तुओं का अति संचय करना, मन में क्लिष्टता, वस्तु पर अत्यंत ममता, खाने-पीने आदि की उपभोग्य वस्तु पास में होने पर भी अत्यंत लोभवश उसका सेवन न करना और कृपणता के कारण खराब अन्न को नहीं फेंककर खाना, धान्यादि वस्तु खराब हो जाने पर भी खाकर रोगादि बढ़ाना, ( नष्टविनष्ट - सेवन का लोभ) धन पर मूर्च्छा, धन का अत्यधिक लोभ तथा हमेशा लोभ के परिणामों में ही डूबे रहना, लोभ का ही चिंतन करना । ये सभी लोभ के सामान्य - विशेष भेद हैं । ये जीव को महाभयंकर जन्म-मरण के प्रवाह रूपी महासमुद्र में डूबोते हैं ||३०८३०९॥ अतः इस दारुण लोभ का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। एएस जो न वट्टिज्जा, तेण अप्पा जहडिओ नाओ । मणुआण माणणिज्जो, देवाण वि देवयं हुज्जा ॥३१०॥
उपदेशमाला
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