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अनर्थकारी हैं' ॥३०१॥ अब प्रथम क्रोध के पर्यायवाची शब्द और उसका स्वरूप बताते हैंकोहो, कलहो खारो, अवरुप्परमच्छरो अणुसओ अ । चंडत्तणमणुवसमो, तामसभावो य संतावो ॥३०२॥ निच्छोडण निब्भंच्छण, निरणवत्तित्तणं असंवासो । कयनासो अ असम्म, बंधइ घणचिक्कणं कम्मं ॥३०३॥
शब्दार्थ : क्रोध-अप्रीति, झगड़ा, परस्पर डाह या दुष्ट आशय रखना, तामस भाव रखना, संताप (खेद), भौंहे चढ़ाना, मुँह चढ़ाना, उपशम का अभाव और क्रोध से आत्मा को मलिन करना, दूसरे को डांटना, मारना-पीटना, दूसरे की इच्छानुसार नहीं चलना, रोष के कारण किसी के साथ न रहना, किसी के किये उपकार को बिलकुल धो डालना और विषय भावों में मग्न रहना; ये सभी क्रोध के फलस्वरूप होने से क्रोध के ही पर्यायवाची शब्द हैं । इनसे जीव अत्यंत कटुरस वाले निकाचित (चिकने) कर्म बांधता है । इसीलिए क्रोध का त्याग करना चाहिए ॥३०२-३०३॥ माणो मय-हंकारो, परपरिवाओ य अत्तउक्करिसो । परपरिभवो वि य तहा, परस्स निंदा असूया य ॥३०४॥ हीला निरोवयारित्तणं, निरवणामया अविणओ य । पर गुणपच्छायणया, जीवं पाडिंति संसारे ॥३०५॥ युग्मम्
शब्दार्थ : सामान्य अभिमान, जाति आदि का मद, अहंकार, दूसरे के दोषों का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करना, उपदेशमाला
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