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अपनी प्रशंसा करना अथवा अपने उत्कर्ष की डींग हांकना, दूसरे का अपमान करना, निंदा करना, दूसरे के गुणों में भी दोष (नुक्स) निकालना, दूसरे की हीन जाति आदि प्रकटकर उसे नीचा दिखाना, किसी का भी उपकार नहीं करना, अक्कड़पन, गुरु को देखकर खड़े नहीं होना, उन्हें आसन आदि नहीं देना; ये सभी मान के ही रूप होने से अभिमान के पर्यायवाचक हैं । इनका सेवन करने से जीव चतुर्गति रूपी संसार में चक्कर खाता है । इसीलिए मान शत्रु का काम करने वाला है, ऐसा समझकर इसका त्याग करें ॥३०४-३०५॥ मायाकुडंगपच्छण्णपावया, कुड-कवडवंचणया । सव्वत्थ असब्भावो, परनिक्खेवावहारो य ॥ ३०६ ॥ छल-छोम-संवइयरो, गूढायारत्तणं मई- कुडिला । वीसंभघायणं पि य, भवकोडिसएस वि नडंति ॥३०७॥ युग्मम् शब्दार्थ : सामान्य माया, गाढ़ निबिड़ माया, छिपे-छिपे पापकर्म करना, कूट- कपट, धोखेबाजी, ठगी, ठगी, सर्वत्र अविश्वास, (अत्यंत वहम ) असत्प्ररूपणा करना, दूसरे की धरोहर (अमानत) हड़प जाना, छल, अपने स्वार्थ के लिए पागल बनना, माया से गुप्त रहना, कुटिलता, वक्रमति और विश्वासघात करना, ये सभी माया रूप होने से माया के पर्यायवाची हैं । इस माया से जीव सौ करोड़ जन्मों तक
उपदेशमाला
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