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जो सतत् पर भावों को छोड़कर स्वभाव में ही रमण करता है, वह जीव रत्नत्रय की सम्यग् आराधना के फलस्वरूप इष्ट अर्थ-शाश्वतसुखरूप मोक्षार्थ को साध लेता है ॥२७२॥ जह मूलताणए, पंडुरंमि दुव्वन्न-रागवण्णेहिं । बीभच्छा पडसोहा, इय सम्मत्तं पमाएहिं ॥२७३॥ ___ शब्दार्थ : जैसे वस्त्र बुनते समय ताना (मूल तंतु) सफेद हो; किन्तु उसके साथ बाना काले, कत्थई आदि खराब रंग के तंतुओं के हों तो उस वस्त्र की शोभा मारी जाती है, वैसे ही पहले सम्यक्त्व निर्मल हो, लेकिन उसके साथ विषयकषायप्रमादादि के आ मिलने पर वह बिगड़ जाता है । इसीलिए सम्यक्त्व को मलिन करने वाले विषय-कषाय आदि प्रमाद शत्रुओं से बचना चाहिए; यही इसका निष्कर्ष है ॥२७३।। नरएसु सुरवरेसु य, जो बंधइ सागरोवमं इक्कं । पलिओवमाण बंधइ, कोडिसहस्साणि दिवसेणं ॥२७४॥
शब्दार्थ : सौ वर्ष की उम्र वाला आदमी अगर पाप-कर्म करता है तो एक सागरोपम की आयु वाली नरक-गति का बंधन करता है और उतना ही पुण्यकर्म उपार्जन करता है तो एक सागरोपम वाली देव-गति का बंधन करता है । ऐसा पुरुष एक दिन में सुख-दुःख संबंधी हजार करोड़ पल्योपम जितना आयुष्य बांध लेता है, उतना ही पाप-पुण्य एक दिन में जीव उपार्जन कर लेता है। इसीलिए प्रमादपूर्ण आचरण छोड़कर निरंतर पुण्योपार्जन करते रहना चाहिए ॥२७४॥ उपदेशमाला
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