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दोनों गतियों में उसका जन्म नहीं होता । क्योंकि समकितधारी मानव प्रायः देवायु का बंध करता है । और देव प्रायः मनुष्यायु बांधता है । इसीलिए सम्यक्त्वी के दोनों अशुभगतियों के द्वार बंद हो जाते हैं । देव, मनुष्य और मोक्ष संबंधी सुख उसके हस्तगत हो जाते हैं ॥२७०॥ कुसमयसुईण महणं, सम्मत्तं जस्स सुट्ठियं हियए । तस्स जगुज्जोयकरं, नाणं चरणं च भवमहणं ॥२७१॥ ___ शब्दार्थ : 'जिस व्यक्ति के हृदय में कुसमय (मिथ्यादर्शनियों के सिद्धांत) का नाशक सम्यक्त्व सुस्थिर हो गया, समझ लो, उसको भव-भ्रमण का नाश करने वाले विश्व का उद्योत करने वाले केवलज्ञान और यथाख्यातचारित्र प्राप्त हो गया ।' क्योंकि सम्यक्त्व न हो तो ज्ञान ज्ञान नहीं होता और सम्यक् ज्ञान के बिना चारित्र प्राप्त नहीं होता । और चारित्र के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता । अतः मोक्ष का मुख्य कारण सम्यक्त्व है ॥२७१॥ सुपरिच्छियसम्मत्तो, नाणेणालोइयत्थसब्भावो । निव्वणचरणाउत्तो, इच्छियमत्थं पसाहेइ ॥२७२॥ __शब्दार्थ : जिसने अच्छी तरह परीक्षा करके दृढ़ सम्यक्त्व
को प्राप्त कर लिया है, सम्यग्ज्ञान से जो जीव-अजीव आदि तत्त्वों का स्वरूप भलीभांति जानता है, और उस कारण से क्षतिरहित चारित्र के पालन में संलग्न है, यानी निश्चयदृष्टि से उपदेशमाला