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शरीर वाले देवताओं को भी वहाँ से च्यवन करके अशुचि से भरे हुए गर्भवास में आना पड़ता है, वह उनके लिए अतिदारुण दुःख है । इसीलिए देवलोक में भी सुख नहीं है ॥२८५ ॥ । तं सुरविमाणविभवं, चिंतिय चवणं च देवलोगाओ । अइबलिय चिय जं न वि, फुइ सयसक्करं हिययं ॥ २८६ ॥
शब्दार्थ : देवलोक का वह प्रसिद्ध अत्यंत ऐश्चर्य छोड़ने और उस देवलोक से च्यवन का मन से विचार करके घंटे के लोलक की तरह दोनों ओर से मार पड़ती है वैसे ही देवलोक के जीव को एक ओर सुखवैभव छोड़ने का दुःख और दूसरी ओर मृत्युलोक में गंदे अशुचिपूर्ण गर्भावास में उत्पन्न होने का महादुःख होता है । ऐसा विचार करते हुए भी उसका अत्यंत कठोर व बलिष्ठ हृदय फट नहीं जाता ॥ २८६॥ और फिर देवगति के दारुण दुःखों का वर्णन करते हैंईसा -विसाय-मय- कोह-माया - लोभेहि, एवमाईहिं । देवा वि समभिभूया, तेसिं कत्तो सुहं नाम ? ॥२८७॥
शब्दार्थ : देवों में भी परस्पर ईर्ष्या होती है, दूसरे देवों के द्वारा किये हुए तिरस्कार से विषाद होता है, अहंकार, अप्रीति रूप क्रोध, असहनशीलता, माया, कपटवृत्ति, लोभ और आसक्ति इत्यादि मन के विकारों से देव भी दबे हुए रहते हैं | वास्तव में उन्हें भी सुख कहाँ से मिल सकता है ?
॥२८७॥
उपदेशमाला
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