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लद्धेल्लयं च बोहिं, अकरितोऽणागयं च पत्थितो । अन्नं दाइं बोहिं, लब्भिसि कयरेण मोल्लेणं ? ॥२९२॥
शब्दार्थ : 'हे मूर्ख ! तू इस जन्म में जिनधर्म प्राप्त करके उसका आचरण नहीं करता और अगले जन्म में मुझे जिनधर्म प्राप्त हो,' ऐसी प्रार्थना कर रहा है । भला, दूसरे जन्म में वह धर्म कहाँ से मिलेगा; जबकि इस जन्म में प्राप्त सामग्री का यथाशक्ति उपयोग नहीं किया ? इस जन्म में प्राप्त साधनों का यथोचित उपयोग करने वाला ही आगामी जन्म में उस सुख को प्राप्त कर सकता है ॥२९२॥ संघयण-कालबल-दूसमारुयालंबणाइ धित्तूणं । सव्वं चिय नियमधुरं, निरुज्जमाओ पमुच्चति ॥२९३॥
शब्दार्थ : निरुद्यमी आलसी जीव, 'अब तो पहले आरे जैसा बलवान संघयण नहीं है, अब तो दुष्काल है' प्रथम आरे जैसा आज बल नहीं रहा; इस समय पाँचवां आरा चल रहा है, और निरोगी शरीर नहीं है, इसीलिए धर्म कैसे हो सकता है ? इस प्रकार के आलंबनों का सहारा लेकर प्राप्त हुए चारित्र, क्रिया, तप आदि सर्व नियमों का छोड़ देता है। ऐसा प्रमादी जीव स्व पर का विनाश करता है। परंतु ऐसे आलंबनों की ओट लेना ठीक नहीं है। समयानुसार आलस्य छोड़कर यथाशक्ति धर्म में उद्यम करना चाहिए ॥२९३॥ कालस्स य परिहाणी, संयम जोगाइं नत्थि खित्ताई । जयणाए वट्टियव्वं, न हु जयणा भंजए अंगं ॥२९४॥ उपदेशमाला
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