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कैसे छुटकारा पाऊँगा?' ऐसे रात-दिन विचार करने वाले जीव को निश्चय ही निकट भव्य जानना । उसका संसार परिमित है और वह जल्दी ही मोक्ष का अधिकारी हो जाता है ॥२८९॥ आसन्न-काल-भवसिद्धियस्स, जीवस्स लक्खणं इणमो । विसयसुहेसु न रज्जइ, सव्वत्थामेसु उज्जमइ ॥२९०॥
शब्दार्थ : जो जीव अल्पकाल में ही जन्म-मरण (संसार) का अंत कर मोक्ष-गति पाने वाला हो, वह पाच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त नहीं होता, और तप-संयम रूप स्व-परकल्याण-साधना में पूरी ताकात लगाकर पुरुषार्थ करता है । यही आत्मार्थी का वास्तविक लक्षण है ॥२९०॥ होज्ज व न व देहबलं, धिइमइसत्तेण जइ न उज्जमसि ।
अच्छिहिसि चिरं कालं, बलं च कालं च सोअंतो ॥२९१॥ ___शब्दार्थ : हे शिष्य ! दैवयोग से शरीर में ताकत हो या न
हो, फिर भी तू धैर्य, बुद्धिबल और उत्साह के साथ धर्म में उद्यम नहीं करेगा तो बाद में अफसोस करेगा - "हाय ! अब तो शरीर में ताकात न रही । यह धर्मकाय आज तो नहीं हो सकता, कल करूंगा; यों विचार करते-करते चिरकाल तक तू संसार में परिभ्रमण करता रहेगा।" अर्थात् धर्म की आराधना नहीं करने से तुझे बाद में बहुत अर्से तक पछताना पड़ेगा“आह ! अब क्या करूँ ! अब तो शरीर में शक्ति नहीं रही," इस प्रकार तुझे अफसोस करने का समय आयेगा ॥२९१॥ उपदेशमाला
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