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शब्दार्थ : "काल दिनोंदिन हीन (पतन का) चला आ रहा है और संयम के योग्य ऐसे क्षेत्र भी वर्तमान में नहीं रहे, इसीलिए क्या करना चाहिए ?" इस प्रकार के शिष्य के प्रश्न के उत्तर में गुरुमहाराज कहते हैं- “यतना पूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए । यतना रखने से अवश्य ही चारित्र रूपी अंग का विनाश नहीं होता । इसीलिए यतना पूर्वक यथाशक्ति चारित्र पालन में उद्यम करना चाहिए" ॥२९४॥ समिई-कसाय-गारव-इंदिय-मय-बंभचेरगुत्तीसु । सज्झाय-विणय-तव-सत्तिओ, अ जयणा सुविहियाणं ।२९५।
शब्दार्थ : सुविहित मुनियों की जयणा-यतना कर्त्तव्य करण-अकर्त्तव्य त्याग निम्न स्थानों में, कार्यों में होती है-१. सदा इर्यादि पांच समिति का पालन करना, २. क्रोधादि चार कषायों को रोकना, ३. ऋद्धि, रस और साता इन तीन गारवों (गर्वो) का निवारण करना, ४. पांच इन्द्रियों को वस करना, ५. आठ प्रकार के मदों का त्याग करना, ६. नौ प्रकार की ब्रह्मचर्यगुप्ति का पालन करना, ७. वाचना आदि पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना, ८. दस प्रकार का विनय करना, ९. बाह्य और आभ्यंतर-भेद से बारह प्रकार के तप करना, तथा १०. अपनी शक्ति को नहीं छिपाना, (यह द्वार गाथा है अब क्रमशः द्वारों का वर्णन करते हैं) ॥२९५।। जुगमित्तंतरदिट्ठी, पयं पयं चक्खुणा विसोहिंतो । अव्वक्खित्ताउत्तो, इरियासमिओ मुणी होइ ॥२९६॥ उपदेशमाला
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