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पलिओवम संखिज्जं, भागं जो बंधई सुरगणेसु । दिवसे-दिवसे बंधई, स वासकोडी असंखिज्जा ॥२७५॥
शब्दार्थ : जो पुरुष मनुष्यजन्म में सौ वर्ष के पुण्याचरण से देव-गणों में पल्योपम के संख्यातवें भाग का अल्पायुष्य बांधता है; उस हिसाब से वह पुरुष प्रतिदिन असंख्यात करोड़ वर्ष का आयुष्य बांधता है। क्योंकि पल्योपम के संख्यातवें भाग से १०० वर्ष के दिनों का भाग देने से भाज्यफल प्रत्येक दिन का असंख्यात करोड़ वर्ष आता है ॥२७५।। एस कम्मो नरएसु वि, बुहेण नाऊण नाम एयं पि । धम्ममि कह पमाओ, निमेसमित्तं पि कायव्वो ! ॥२७६॥
शब्दार्थ : इसी क्रम से नरकों के आयुष्य बंध का भी हिसाब लगाकर भलीभांति समझकर पण्डित पुरुष को वीतराग कथित क्षमा आदि दस प्रकार के श्रमण-धर्म की आराधना में पलभर भी प्रमाद क्यों करना चाहिए ? मतलब यह है कि सतत् धर्माराधन में तत्पर रहना चाहिए ॥२७६।। दिव्वालंकारविभूसणाइं रयणुज्जलाणि य घराई । रुवं भोगसमुद्दओ, सुरलोगसमो कओ इहइं ? ॥२७७॥
शब्दार्थ : 'देवलोक में जैसे दिव्य छत्र, सिंहासन आदि ऐश्वर्यालंकार हैं, जैसे दिव्य मुकुट आदि आभूषण हैं, रत्नों की राशि की उज्जवल धरती और रत्नमय प्रासाद हैं, शरीर का कांतिमय रूप सौभाग्य है और अत्यंत अद्भुत भोग उपदेशमाला
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