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दोनों लोकों में हानिकारक है । इसीलिए शिथिलाचार का त्याग करना चाहिए ॥२५९॥ सोच्चा ते जियलोए, जिणवयणं जे नरा न याणंति । सुच्चाण वि ते सुच्चा, जे नाऊणं न वि करंति ॥२६०॥
शब्दार्थ : जो मनुष्य अपने अविवेक या प्रमाद के कारण जिनवचनों को जानते नहीं, इस जीवलोक में उनकी दशा शोचनीय होती है; लेकिन इनसे भी बढ़कर अति-शोचनीय दशा उन लोगों की होती है, जो जिनवचनों को जानते-बूझते हुए भी प्रमादवश तदनुसार अमल में नहीं लाते । वस्तुतः जानबूझकर भी प्रमादादिवश जो व्यक्ति धर्माचरण नहीं करता, उसकी अंत में बड़ी दुर्दशा और दुर्गति होती है ॥२६०॥ दावेऊण धणनिहि, तेसिं उप्पाडिआणि अच्छीणि । नाऊण वि जिणवयणं, जे इह विहलंति धम्मधणं ॥२६१॥
शब्दार्थ : इस संसार में जो जिनवचन को भलीभांति जानकर भी विषय, कषाय और प्रमाद के वशीभूत होकर अपने धर्म रूपी धन को खो देते हैं, उन्होंने स्वर्ण, रत्न आदि धन का खजाना रंक जनों को दिलाकर उनकी आखें फोड़ ली हैं । मतलब यह है कि अभागा व्यक्ति धर्म (ज्ञान-दर्शन-रूपी)-धन पाकर भी उसका वास्तविक फल प्राप्त नहीं कर सकता ॥२६१॥ ठाणं उच्चुच्चयरं, मज्जं हीणं च हीणतरंग वा । जेण जहिं गंतव्वं, चिट्ठा वि से तारिसी होइ ॥२६२॥ उपदेशमाला