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शब्दार्थ : किसी समय कर्मों की विचित्रता के कारण गुरु प्रमादवश धर्ममार्ग से शिथिल - पतित- होने लगते हैं तो निपुण सुशिष्य उन्हें भी अत्यंत नैपुण्ययुक्त मधुरवचनों तथा व्यवहारों से पुनः सन्मार्ग (संयमपथ) पर स्थिर कर देते हैं । जैसे शैलक राजर्षि नामक गुरु को जाना-माना पंथक शिष्य सुमार्ग पर ले आया था ॥२४७॥
दस-दस दिवसे दिवसे, धम्मे बोहेइ अहव अहिअरे । इय नंदिसेणसत्ती, तहवि य से संजमविवत्ती ॥२४८ ॥
शब्दार्थ : 'प्रतिदिन दस या इससे भी अधिक व्यक्तियों को धर्म का प्रतिबोध देने की शक्ति विद्यमान थी फिर भी नंदिषेण मुनि के निकाचित कर्म-बंध के कारण संयम ( चारित्र) का विनाश हुआ । अतः निकाचित कर्मबंध का भोग अत्यंत बलवान है ॥२४८ ॥ यही इस गाथा का भावार्थ है ।' कलुसीकओ अ किट्टीकओ, खउरीकओ मलिणिओ य । कम्मेहिं एस जीवो, नाऊण वि मुज्झई जेणं ॥ २४९ ॥
शब्दार्थ : जैसे धूल से भरा हुआ पानी कीचड़वाला (मैला) हो जाता है, लोहे को जंग लग जाने पर वह भी मलिन हो जाता है और लड्डू पुराना हो जाने पर उसका स्वाद बिगड़ जाता है, उसमें से बदबू आने लगती है, उसी प्रकार यह जीव भी कर्मों से लिप्त होकर मलिन हो जाता है, विषय, कषाय, विकथा, प्रमाद आदि बुराइयों के जंग लग जाने से
उपदेशमाला
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