________________
विरया परिग्गहाओ, अपरिमियाओ अणंतण्हाओ । बहुरोसंकुलाओ, नरयगईगमणपंथाओ ॥२४४॥
शब्दार्थ : अपरिमित, (अमर्यादित) असीम, अनंत तृष्णाएँ नरकगति में ले जाने वाली राहें हैं और बंधन आदि दोषों से घिरी हुई है; इसीलिए श्रावक असीम परिग्रह (तृष्णा) से विरत होता है ॥२४४॥ मुक्का दुज्जणमित्ती, गहिया गुरुवयण-साहुपडिवत्ती । मुक्को परपरिवाओ, गहिओ जिणदेसिओ धम्मो ॥२४५॥
शब्दार्थ : सुश्रावक दुर्जनों की मैत्री छोड़कर तीर्थंकर आदि गुरुओं के वचनों को मान्य करता है और साधुओं की विनयभक्ति करता है । वह सदा परनिन्दा से दूर रहता है
और राग-द्वेष को छोड़कर जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट समताभाव रूपी धर्म को सादर ग्रहण करता है ॥२४५॥ तवनियमसीलकलिया, सुसावगा जे हवंति इह सुगुणा । तेसिं न दुल्लहाइं, निव्वाणविमाणसुक्खाइं ॥२४६॥
शब्दार्थ : जो बारह प्रकार के तप, श्रावकधर्म के उपयुक्त कई नियम तथा शील-सदाचार आदि गुणों से सम्पन्न सद्गुणी सुश्रावक होते हैं, उनके लिये निर्वाण या वैमानिक देवलोक के सुख दुर्लभ नहीं है ॥२४६॥ सीएज्ज कयावि गुरु, तं पि सुसीसा सुनिउणमहुरेहिं । मग्गे ठवंति पुणरवि, जह सेलगपंथगो (पत्थिवो) नायं ॥२४७॥ उपदेशमाला
८९