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पढमं जईण दाऊण, अप्पणा पणमिऊण पारेइ । असई य सुविहिआणं, भुंजइ कयदिसालोओ ॥२३८॥
शब्दार्थ : भोजन के समय श्रावक इन्द्रिय-संयमी साधुओं को पहले निर्दोष आहार-पानी आदरपूर्वक देकर बाद में स्वयं भोजन करता है। अगर ऐसे सुपात्र-सुविहित साधुओं का निमित्त न मिले तो जिस दिशा में साधु-मुनिवर विचरण करते हों, उस दिशा में अवलोकन करके 'यदि इस समय साधु मुनिवर पधार जाएँ तो अच्छा हो, इस प्रकार की भावना के साथ भोजन करता है ॥२३८॥ साहूण कप्पणिज्जं, जं नवि दिन्नं कहिं पि किंचि तहिं । धीरा जहुत्तकारी, सुसावगा तं न भुंजंति ॥२३९॥
शब्दार्थ : किसी भी देश या काल में साधुओं के लिए कल्पनीय शुद्ध आहार आदि किचिन्मात्र वस्तु भी उन्हें नहीं दे देते, तब तक वे धीर-गंभीर, सत्त्ववान श्रावक उस वस्तु को स्वयं नहीं खाते । अर्थात् मुनिवर जिस वस्तु को ग्रहण करते हैं, उसी वस्तु को वे स्वयं खाते हैं, अन्यथा नहीं ॥२३९।। वसही-सयणाऽसण-भत्त-पाण-भेसज्ज-वत्थ-पत्ताई । जइ वि न पज्जतधणो, थोवा वि हु थोवयं देइ ॥२४०॥
शब्दार्थ : भले ही श्रावक पर्याप्त-धनसंपन्न न हो, तथापि वह अपने थोड़े-से आवास, सोने के लिए तख्त (पट्टे),
उपदेशमाला