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शब्दार्थ : ऐसा श्रावक स्व-पर कल्याण के साधक साधुओं की सतत वंदना करता है, प्रश्न पूछता है, उनकी सेवाभक्ति करता है, धर्मशास्त्र पढ़ता है, सुनता है और पढ़ीसुनी बातों पर अर्थपूर्ण चिन्तन करता है और अपनी बुद्धि के अनुसार दूसरों को या अल्पज्ञों को धर्म की बात बताता है या धर्म का बोध देता है ॥२३३॥ । दढसीलव्वयनियमो, पोसह-आवस्सएसु अक्खलियो । महुमज्जमंस-पंचविहबहुबीयफलेसु पडिक्कंतो ॥२३४॥
शब्दार्थ : वह श्रावक ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत (शील) सहित ५ अणुव्रतों एवं नियमों पर दृढ़ रहता है । पौषध तथा आवश्यक अचूक तौर पर नियमित रूप से करता है। साथ ही मधु (शहद) मद्य (शराब) और मांसाहार, व बड़, गुल्लर (उदूम्बर) आदि ५ प्रकार के बहुबीज वाले फलों तथा बैंगन आदि बहुबीज वाले व आलू आदि अनंतकायिक जमीकंदों का त्यागी होता है ॥२३४॥ नाहम्मकम्मजीवी, पच्चक्खाणे अभिक्खमुज्जुत्तो । सव्वं परिमाणकडं, अवरज्झइ तं पि संकंतो ॥२३५॥ ___शब्दार्थ : कर्मादान कहलाने वाली १५ प्रकार की
आजीविकाएँ या किसी भी प्रकार की अधर्मवर्द्धक आजीविका श्रावक नहीं करता, अपितु निर्दोष व्यवसाय करता है। वह १० प्रकार के प्रत्याख्यानों (त्याग-नियमों) में सदा उद्यत उपदेशमाला