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या भ्रष्ट साधु की भी वंदना करते हैं । परंतु जिन्होंने परमार्थ को भलीभांति जान लिया है, वे 'हम तत्त्वज्ञ सुविहित मुनियों के द्वारा वंदन कराने योग्य नहीं हैं, इस प्रकार आत्म दोष को जानकर वंदना करने के लिए उद्यत पासत्था आदि साधुओं को रोके और उन्हें कहे कि आप हमें वंदना न करें । भावार्थ यह है कि मूल-उत्तरगुणों से रहित सुसाधुओं से वंदना न लें ॥२२८॥ सुविहिय वंदावेंतो, नासेइ अप्पयं तु सुप्पहाओ । दुविहपहविप्पमुक्को, कहमप्पं न जाणई मूढो ॥२२९॥ ___ शब्दार्थ : जो पासत्था आदि शिथिलाचारी साधु सुविहित
साधुओं से वंदना करवाता है, वह अपने ही सुप्रभाव को नष्ट करता है । अथवा वह सुपथ (मोक्षमार्ग) से अपनी आत्मा को दूर फेंकता है। क्योंकि आचारभ्रष्ट साधु साधुधर्म और श्रावकधर्म दोनों मार्गों से रहित होता है । पता नहीं, वह मिथ्याभिमानी मूढ़ अपने-आपको क्यों नहीं जानता कि मैं दोनों मार्गों से भ्रष्ट हो रहा हूँ; इससे मेरी क्या गति होगी ? ॥२२९॥ वंदइ उभओ कालंपि, चेइयाइं थवथुईपरमो । जिणवरपडिमाघरधूवपुप्फगंधच्चणुज्जत्तो ॥२३०॥
शब्दार्थ : जो सुबह-शाम (दोनों समय) और अपि शब्द से मध्याह्नकाल में भी (यानी तीनों काल) स्तवन और स्तुति उपदेशमाला