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पाणच्चए वि पावं, पिवीलियाए वि जे न इच्छंति । ते ह जई अपावा, पावाइं करेंति अन्नस्स ? ॥१७५॥
शब्दार्थ : जो मुनि प्राणांत कष्ट देने वाली चींटियों पर क्रोधवधादि पाप करने की इच्छा नहीं करते, वे निष्पाप मुनि अन्य मनुष्यों के प्रति पापकर्म का आचरण करेंगे ही कैसे ? अर्थात् - वे दूसरों पर प्रतिकूल आचरण सर्वथा नहीं करते ॥१५॥ जिणपह-अपंडियाणं, पाणहराणं पि पहरमाणाणं । न करंति य पावाइं, पावस्स फलं वियाणंता ॥१७६॥
शब्दार्थ : मुनि पाप का फल नरकादिक है, ऐसा भलीभांति जानते हैं, इसीलिए जिनमार्ग से अनभिज्ञ, अधर्म, अज्ञानी, अविवेकी, पापी और परितापकारी लोग जो तलवार आदि से प्रहार करके प्राणों का हरण करते हैं, उनके प्रति भी द्वेष, रोष, वधादि पापकर्म वे नहीं करते । अर्थात् उनके मारने का चिन्तनरूप पापकर्म भी वे नहीं करते, और न उनका द्रोह या अहित ही करते हैं ॥१७६॥ वह-मारण-अब्भक्खाण-दाणपरधणविलोवणाईणं । सव्वजहन्नो उदओ, दसगुणिओ इक्कसि कयाणं ॥१७७॥ ___ शब्दार्थ : एक बार किये हुए वध, लकड़ी आदि से किये गये प्रहार, प्राण के नाश करने, मिथ्या कलंक देने, दूसरे के धन का हरण करने या चोरी करने, किसी को उपदेशमाला
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