________________
शाता गारव, इस तरह तीनों गारवों के चक्कर में पड़कर मैंने श्री जिनेश्वर भगवान् द्वारा उक्त धर्म की आराधना नहीं की और न मैंने अपनी आत्मा को सावधान ही किया । इसीलिए आज मेरी ऐसी दशा हुई है ॥ १९२॥
ओसन्नविहारेणं, हा जइ झीणंम्मि आउए सव्वे । किं काहामि अन्नो ? संपइ सोयामि अप्पाणं ॥ १९३॥
शब्दार्थ : अफसोस है, मेरी सारी आयु चारित्र - पालन की शिथिलता (प्रमाद, असावधानी आदि) में बीत, क्षीण हो गयी; अब मैं अभागा धर्म रूप संबंध के बिना क्या करूँ ? अब (इस जन्म में) मैं आत्मा के बारे में चिन्ता कर रहा हूँ । परंतु अब शोक करने मात्र से क्या होगा ? ॥१९३॥ हा ! जीव ! पाव भमिहिसि, जाई जोणीसयाइं बहुयाइं । भवसयसहस्सदुल्लहं पि, जिणमयं एरिसं लद्धुं ॥१९४॥
शब्दार्थ : अरे पापी जीव ! लाखों जन्मों में भी अतिदुर्लभ और अचिंत्य चिंतामणि के समान श्रीजिनकथित धर्म को प्राप्त करके भी स्वच्छंदता के कारण उसकी आराधना नहीं की; इसीलिए तुझे एकेन्द्रियादि अनेक जातियों और शीतोष्णादि अनेक योनियों में सैकड़ों बार परिभ्रमण करना पड़ेगा ॥१९४॥
पावो पमायवसओ, जीवो संसारकज्जमुज्जुत्तो । दुक्खेह न निव्विण्णो, सुक्खेहिं न चेव परितुट्ठो ॥ १९५॥
उपदेशमाला
६८