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उनके पल्ले तो जन्म-मरण आदि का चक्कर ही पड़ता है ॥२१८-२१९॥ जे घरसरणपसत्ता, छक्कायरिऊ सकिंचणा अजया । नवरं मोत्तूण घरं, घरसंकमणं कयं तेहिं ॥२२०॥
शब्दार्थ : जो साधु अपने घरबार आदि का त्याग करके फिर उपाश्रय आदि घरों की मरम्मत करवाने, उसे बनवाने आदि में फंस जाते हैं, वे हिंसादि आरंभों के भागी होने से ६ काय के जीवों (समस्त प्राणियों) के शत्रु हैं, द्रव्यादि परिग्रह रखने-रखाने के कारण वे सकिंचन (परिग्रही) हैं
और मन-वचन-काया पर संयम न रखने के कारण असंयत (असंयमी) हैं । उन्होंने केवल अपने पर्वाश्रम (गहस्थाश्रम) का घर छोड़ा और साधुवेष के बहाने नये घर (उपाश्रय) में संक्रमण किया है। यानी एक घर को छोड़कर प्रकारांतर से दूसरा घर अपना लिया है। उसका वेष केवल विडंबना के सिवाय और कुछ भी नहीं है ॥२२०॥ उसुत्तमायरंतो, बंधइ कम्मं सुचिक्कणं जीवो । संसारं च पवड्डइ, मायामोसं च कुव्वइ य ॥२२१॥ ___ शब्दार्थ : जो जीव सूत्र (शास्त्रों में उल्लिखित मर्यादा) के विरुद्ध आचरण करता है, वह अत्यन्त गाढ़-निकाचित रूप में चिकने ज्ञानावरणीय कर्मों का बंधन करता है; अपने आत्मप्रदेशों के साथ ऐसे स्निग्धकर्मों को चिपकाकर संसार उपदेशमाला
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