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__ शब्दार्थ : जिस मनुष्य ने पुण्य नहीं किया; दुर्गति में गिरते हुए प्राणी को धारण करके रखने वाले शुद्ध धर्म का श्रवण नहीं किया; अथवा धर्मश्रवण करने पर भी जो उसके आचरण में मद-विषय-कषाय-निद्रा-विकथा रूप पाँच प्रकार के प्रमाद करता है; वह जीव इस संसार की चारों गतियों में अनंत बार चक्कर लगाता है ॥२१५॥ अणुसिट्ठा य बहुविहं, मिच्छदिट्ठी य जे नरा अहमा । बद्धनिकाइयकम्मा, सुणंति धम्मं न य करंति ॥२१६॥
शब्दार्थ : सम्यग्दर्शन-ज्ञानरहित मिथ्यादृष्टि या जो अधम मनुष्य निकाचित रूप में ज्ञानावरणीयादि कर्मों के बंधन के कारण कदाचित् अनेक त्यागीजनों के धर्मोपदेश, प्रेरणा आदि से अथवा स्वजनों के अनुरोध से धर्मश्रवण तो कर लेते हैं; मगर भलीभांति धर्माचरण नहीं करते । सारांश यह है कि लघुकर्मी जीव ही धर्म की प्राप्ति कर सकते हैं ॥२१६॥ पंचव उज्झिऊणं पंचेव, य रक्खिऊण भावेणं । कम्मरयविप्पमुक्का, सिद्धिगइमणुत्तरं पत्ता ॥२१७॥
शब्दार्थ : हिंसा आदि पाँच आश्रवों को छोड़कर और अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों (संवरों) का आत्मा के शुभ भावों से रक्षण करके जो आठकर्म रूपी मल से सर्वथा मुक्त होकर निर्मल आत्मभाव को प्राप्त कर लेते हैं, वे ही सर्वोत्कृष्ट सिद्धिगति को पाते हैं । इसीलिए हिंसादि पांच उपदेशमाला
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