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की वृद्धि करता है। ऐसा करने के साथ-साथ यह मायामृषा (कपट सहित असत्याचरण-दंभ) का सेवन करता है; वह भी उसके अनंत संसार वृद्धि का कारण बनता है ॥२२१॥ जइ गिण्हइ वयलोवो, अहव न गिण्हइ सरीरवोच्छेओ । पासत्थसंगमो वि य, वयलोवो तो वरमसंगो ॥२२२॥ ___शब्दार्थ : अगर सुविहित साधु पार्श्वस्थ (उत्सूत्राचारी) के द्वारा लाया हुआ आहार-पानी व वस्त्र आदि ग्रहण करता है तो उसके महाव्रत का लोप होता है और नहीं ग्रहण करता तो उसका शरीर टिक नहीं सकता । इस प्रकार ये दोनों ही कष्टरूप हैं। मगर अनुभवियों की सलाह है कि ऐसे मौके पर शरीर को परेशानी में डाल देना या छोड़ देना अच्छा; लेकिन पासत्थ साधक का संग करके व्रत लोप करने की अपेक्षा पासत्थ का संग न करना ही अच्छा है ॥२२२॥ । आलावो संवासो, वीसंभो संथवो पसंगो अ । हीणायारेहिं सम्म, सव्वजिणिंदेहिं पडिकुट्ठो ॥२२३॥ ___शब्दार्थ : हीन आचार वाले साधु के साथ बातचीत करने, साथ रहने, उसका विश्वास करने, गाढ़ परिचय करने और वस्त्रादि के लेने-देने का व्यवहार करने इत्यादि का ऋषभदेव आदि सभी तीर्थंकरों ने निषेध (मना) किया है ॥२२३।। अन्नोन्नजंपिएहि, हसिऊद्धसिएहिं खिप्पमाणो उ । पासत्थमज्झयारे, बलावि जई वाउली होइ ॥२२४॥ उपदेशमाला