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मूढ़ता, अहंकार या प्रमाद के चक्कर में पड़कर किसी अकार्य को कर बैठता है तो अपने महत्त्वपूर्ण स्थान को ही खो देता है। यानी थोड़े-से सुख के लिए बाह्य आडंबर, प्रदर्शन या खानपान, मान-सन्मान के चक्कर में पड़कर महान् वास्तविक सख को ही खत्म कर देता है ॥१८७॥ सीलव्वयाइं जो बहुफलाइं, हंतूण सोक्खमहिलसइ । धिइदुब्बलो तवस्सी, कोडीए कागिणिं किणइ ॥१८८॥
शब्दार्थ : शील, व्रत, आदि का आचरण, स्वर्ग, मोक्ष आदि महान् फलों को देने वाला है । परंतु धैर्य रखने में कमजोर व असंतोषी तपस्वी शील-व्रतों को भंग करके विषयसेवन रूप सुख की अभिलाषा करता है; वह मूर्ख अपनी दुर्बुद्धि-वश करोड़ों का द्रव्य देकर बदले में रुपये के ८० वें हिस्से के रूप में काकिणी पत्थर को खरीदता है ॥१८८॥ जीवो जहामणसियं, हियइच्छियपत्थिएहिं सोक्खेहिं । तोसेऊण न तीरइ जावज्जीवेण सव्वेण ॥१८९॥ ___ शब्दार्थ : संसारी जीव को उसके मन की अभिलाषा के अनुरूप अथवा दिल में चिन्तित या प्रार्थित स्त्री आदि के सुखों से सारी जिंदगी संतुष्ट किया जाय; फिर भी उसकी संतुष्टि या तृप्ति नहीं होती । उलटे तृष्णा की वृद्धि होती जाती है ॥१८९॥
उपदेशमाला